आज जब हम चाँद और मंगल तक पहुँचने की बात कर रहे हैं, तब ‘विकास’ सबसे ज़्यादा बोला जाने वाला शब्द बन गया है। सरकार की नीतियों से लेकर टीवी पर बहस और चुनावी नारों से लेकर विदेशों की बैठकों तक… हर कहीं विकास की बातें हो रही हैं लेकिन एक सवाल जो अकसर अछूता रह जाता है वह यह है कि क्या यह विकास संपूर्ण है? क्या यह विकास सभी के लिए है? क्या यह विकास टिकाऊ है? और सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न है कि क्या यह विकास करुणा से पोषित है?
अगर इन सवालों का जवाब ‘नहीं’ है, तो हमें मानना होगा कि हमारा विकास अधूरा है, कमजोर है और एक दिन टिक नहीं पाएगा… क्योंकि करुणा के बिना विकास सिर्फ आंकड़ों का विस्तार है… जीवन की बेहतरी नहीं।
विकास का मतलब सिर्फ सड़कें बनाना, इमारतें खड़ी करना या योजनाएं बनाना नहीं है। असली विकास वह होता है जो हमारे जीवन को बेहतर बनाए, इंसानियत को मजबूत करे और आने वाली पीढ़ियों का ख्याल रखे लेकिन जब यह प्रक्रिया संवेदनाओं को दरकिनार कर केवल मुनाफ़े और गति के नाम पर आगे बढ़ती है तो ऐसे हालात में मुझे लगता है कि ये विकास नहीं बल्कि अपने अस्तित्व पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है। मैं ऐसा इसलिए कहता हूं क्योंकि विकास के साथ साथ हमारी समस्याएं भी नियमित बढ़ रही है और यदि आज से सैकड़ों वर्षों पूर्व की समस्याएं आज भी जीवित है तो विकास की हमारी परिभाषा पर पुनर्विचार आवश्यक है।
आज जब हम स्मार्ट शहरों की बातें करते हैं तो क्या हम सोचते हैं कि ऐसे शहरों में कितने लोग चुपचाप अपनी जगह और पहचान खो देते हैं? जब हम विदेशी निवेश को आमंत्रित करते हैं तो क्या हमें यह दिखता है कि उसके लिए किस किसान की ज़मीन, किस आदिवासी का जंगल और किस बच्चे का बचपन दांव पर लगता है? एक ग्रामीण युवा के रूप में मेरी समझ में तो करुणा ही वह मूल तत्व है जो विकास को दिशा देता है। यह तय करता है कि हम सिर्फ ‘कितना बढ़े’ नहीं, बल्कि यह भी कि ‘किसे साथ लेकर बढ़े’।
बीते वर्षों में हमने देखा है कि तेज़ रफ्तार से विकास कार्य हुए हैं। सड़कें बनीं, पुल बने, डिजिटल क्रांति आई और बाज़ारों का विस्तार हुआ पर इसी रफ्तार में हमने कई बार यह नहीं देखा कि किसे कुचल कर हम आगे बढ़े। जलवायु परिवर्तन के सबसे अधिक प्रभाव उन समुदायों पर पड़ते हैं जो खुद इसके लिए ज़िम्मेदार नहीं हैं। बाल श्रम आज भी दुनिया के कई हिस्सों में फल-फूल रहा है क्योंकि हम सस्ते श्रम को मुनाफे की बुनियाद मानते हैं। शहरों की चमक के पीछे ग्रामीण इलाकों का अंधकार और बेरोज़गारी अक्सर छिप जाती है। यह सब इसलिए हो रहा है क्योंकि हमने करुणा को विकास की परिभाषा से बाहर कर दिया है।
एक ग्रामीण युवा और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में मैं मानता हूं कि नीति निर्माण करते समय करुणा को केवल ‘सामाजिक मूल्य’ न मानकर रणनीतिक आवश्यकता के रूप में देखा जाए तो एक समृद्ध समाज की मजबूत नींव रखी जा सकेगी।
इन दिनों मैं नोबेल शांति पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी की मुहिम सत्यार्थी मूवमेंट फॉर ग्लोबल कम्पेशन द्वारा करुणा पर आधारित विश्व के प्रथम समर स्कूल का हिस्सा बन वह सब सीख रहा हूं जो हमारे स्कूल हमें सिखाना भूल गए है। कैलाश सत्यार्थी जैसे वैश्विक नेताओं ने करुणा के वैश्वीकरण की बात उठाई है। वह कहते हैं, “We have globalised markets, economies, and data. Now, we must globalise compassion..” इस बात की गहराई को समझना आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है।
जब विश्व भर में व्यापार, तकनीक और पूंजी का आदान-प्रदान हो सकता है तो क्या यह संभव नहीं कि दर्द, जिम्मेदारी और संवेदना भी साझा की जाए? अगर एक मोबाइल फोन अमेरिका में बनता है लेकिन उसकी खनिज सामग्री अफ्रीका के बच्चों की मज़दूरी से निकाली जाती है तो यह विकास नहीं बल्कि अन्याय का वैश्वीकरण है। अगर किसी ब्रांड के कपड़े बांग्लादेश के श्रमिक 16 घंटे काम करके बनाते हैं, लेकिन दुनिया में वह ‘लक्ज़री’ कहलाता है तो यह मुनाफे की नहीं बल्कि करुणा की कमी का संकेत है।
ऐसे में करुणा की वैश्विक प्राथमिकता इसीलिए ज़रूरी है कि हम यह तय कर सकें कि दुनिया का कोई भी बच्चा, किसी के भी विकास की कीमत न बने।
हमारी पीढ़ियाँ हमसे भविष्य में यह जरूर पूछेंगी कि जब दुनिया के पास इतनी तकनीक थी, इतनी पूंजी थी, इतनी जानकारी थी तो करुणा कहाँ थी? क्यों हम उस दिशाविहीन विकास का हिस्सा बने जो मानवाधिकारों के हनन और प्रकृति के शोषण से सिंचित था? क्यों हमने शांति, करुणा, समृद्धि के बजाय मुनाफे और संचय का विकल्प चुना? मुझे यकीन है कि मैं इस प्रश्न का जवाब जल्द ही खोज लूंगा।
लेखक के बारे में: 22 वर्षीय युवा अमन कुमार, मूल रूप से उत्तर प्रदेश के बागपत जिले के निवासी है। वह एक सामाजिक कार्यकर्ता है जो उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा सर्वोच्च युवा पुरस्कार से सम्मानित हो चुके है। वर्तमान में वह सत्यार्थी मूवमेंट फॉर ग्लोबल कम्पेशन के तहत सत्यार्थी समर स्कूल 2025 का हिस्सा बन दुनियाभर से चयनित 25 युवाओं के संग करुणा, शांति, समृद्धि, सामाजिक न्याय आदि विषयों का अध्ययन कर रहे है। वह सामाजिक बदलाव के क्षेत्र में विभिन्न संस्थानों के साथ कार्य कर राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी छाप छोड़ रहे है।
